अंकित कुमार । सोमवार को हुई कैबिनेट बैठक में मंत्रिमंडल ने 25 प्रतिशत किराया बढ़ोतरी के फैसले को स्वीकृति दे दी। यह एक अहम फैसला था, क्योंकि ये किराये में बढ़ोतरी ऐसे वक्त में की गई जब लोगों के रोजगार पर भी संकट मंडरा रहा है, कई लोग तो अपने रोजगार से हाथ धो बैठे हैं। ऐसे में जनता पर यह फैसला एक अतिरिक्त बोझ के अलावा मुझे कुछ नहीं लगता।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि सरकार ने सिर्फ किराया ही बढ़ाया। किराया बढ़ाने के साथ ही सरकार ने एक ऐसा अहम और कठोर फैसला भी लिया जिससे ये जनता पर पड़ा अतिरिक्त बोझ बैलेंस हो जाये। यह फैसला इतना कठोर है कि जनता को यह 25 प्रतिशत किराया बढ़ोतरी का अहसास ही नहीं होने दे रहा। जनता किराया बढ़ने से दुःखी होने की बजाय इस फैसले से खुश हो रही है। पर दुःख इस बात का है कि ऐसा जनता को नहीं सरकार को लग रहा है। सरकार को तो शायद यह भी लग रहा है कि जनता बनी ही लूटने के लिए है, इसलिए जितना लूट सकते हैं लूट लो।
मुझे समझ नहीं आता कि ये सांसदों और विधायकों की फ्री बस यात्रा सुविधा खत्म करने के पीछे का तर्क क्या है, क्योंकि अपनी ज़िंदगी के 22 सालों में तो मुझे कभी भी किसी सांसद या विधायक को बसों में देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। अगर किसी को हुआ हो वो मान सकते हैं कि उन्होंने गंगा नहा ली। जब कोई सांसद या विधायक बसों में कभी बैठता ही नहीं तो फिर चाहे उनकी फ्री सुविधा खत्म करो या रखो, क्या फर्क पड़ता है। लेकिन जनता को यह दिखाने की कोशिश सरकार के द्वारा की जा रही है कि उनका किराया तो 25 प्रतिशत बढ़ाया गया है लेकिन विधायक व सांसद तो सीधे 0 से 125 प्रतिशत पर आ गए।
हो सकता है कि कुछ लोगों को अभी भी ये एक बहुत बड़ा फैसला लग रहा हो। पर मेरा एक सवाल है कि एक तरफ आपको फ्री बस सुविधा हो और दूसरी तरफ आपको अपनी गाड़ी में जाने के लिए 18 रुपए प्रति किलोमीटर की दर से मिले, तो आपको दोनों में से क्या चाहिए? साधारण शब्दों में कहूँ तो जनता को दिखा रहे है कि हमने मूंगफली फेंक दी, और उनकी पीठ पीछे बादाम खाये जा रहे हैं।
नोट : लेखक एक स्वतंत्र लेखक हैं और यह उनके निजी विचार है।